
“श्रीमद्भगवद्गीता हिन्दू धर्म का एक अद्वितीय ग्रंथ है, जो महाभारत के भीष्म पर्व में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का संग्रह है। इसमें कर्मयोग, भक्ति योग, ज्ञान योग और आत्मा के रहस्यों का सुंदर वर्णन है।”


श्रीमद्भगवद्गीता का पहला अध्याय – अर्जुनविषादयोग
अर्जुन का विषाद (शोक) भगवद गीता के पहले अध्याय का सार है, जहाँ अर्जुन युद्धभूमि में मोह और करुणा से विचलित होकर युद्ध करने से इंकार करता है। जानिए इसका गूढ़ अर्थ और आध्यात्मिक संदेश इस लेख में।
श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा अध्याय – सांख्ययोग
सांख्ययोग भगवद गीता का द्वितीय अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण आत्मा, कर्म, ज्ञान और मोक्ष के रहस्यों को उजागर करते हैं। इस अध्याय में जीवन और मृत्यु की वास्तविकता को समझाया गया है। संपूर्ण ज्ञान और आत्मबोध के लिए इसे अवश्य पढ़ें।
श्रीमद्भगवद्गीता का तीसरा अध्याय- कर्मयोग
“कर्म का मार्ग” जीवन में कर्म और उत्तरदायित्व को प्राथमिकता देने की प्रेरणा देता है। भगवद गीता के अनुसार, निष्काम कर्म से आत्मिक उन्नति संभव है। जानिए कर्मयोग का महत्व और इसका आध्यात्मिक अर्थ।
श्रीमद्भगवद्गीता का चौथा अध्याय – ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
भगवद गीता का चौथा अध्याय ‘ज्ञानकर्मसंन्यासयोग’ आत्मज्ञान, निष्काम कर्म और सन्यास के रहस्यों को उजागर करता है। जानिए कैसे कर्म करते हुए भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
श्रीमद्भगवद्गीता का पाँचवा अध्याय – कर्मसंन्यासयोग
भगवद गीता के पंचम अध्याय “कर्मसंन्यासयोग” में कर्म और त्याग के संतुलन को समझाया गया है। जानिए कैसे निष्काम कर्म से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता का छठा अध्याय – आत्मसंयमयोग
“आत्मसंयमयोग” भगवद गीता का छठा अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण ध्यान, योग, और आत्मसंयम के महत्व को समझाते हैं। यह अध्याय साधकों को मानसिक एकाग्रता, आत्मनियंत्रण और मोक्ष की ओर मार्गदर्शन करता है। ध्यानयोग की साधना करने वालों के लिए यह अध्याय अत्यंत उपयोगी है।
श्रीमद्भगवद्गीता का सातवाँ अध्याय – ज्ञानविज्ञानयोग
“ज्ञानविज्ञानयोग” भगवद गीता का सातवाँ अध्याय है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने आध्यात्मिक ज्ञान और विज्ञान के माध्यम से परम सत्य की महिमा बताई है। इस अध्याय में भक्त और भगवान के संबंध को सरल भाषा में समझाया गया है। इसे अवश्य पढ़ें और आत्मज्ञान प्राप्त करें।
श्रीमद्भगवद्गीता का आठवां अध्याय – अक्षरब्रह्मयोग
अक्षरब्रह्मयोग भगवद गीता का आठवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने, अक्षर ब्रह्म की महिमा, योग साधना, और मोक्ष के मार्ग का गूढ़ ज्ञान प्रदान करते हैं। जानें इस अध्याय का सार, महत्व और आध्यात्मिक रहस्य।
श्रीमद्भगवद्गीता का नवाँ अध्याय – राजविद्याराजगुह्ययोग
भगवद गीता का नवां अध्याय “राजविद्याराजगुह्ययोग” परम ज्ञान और रहस्य को उजागर करता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण भक्ति, श्रद्धा और परमात्मा की सर्वव्यापकता का वर्णन करते हैं। इस अध्याय को पढ़ें और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर हों।
श्रीमद्भगवद्गीता का दसवाँ अध्याय – विभूतियोग
भगवद गीता का दसवां अध्याय ‘विभूतियोग’ भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य विभूतियों का वर्णन करता है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे समस्त अद्भुत शक्तियों के मूल स्रोत हैं। जानिए विभूतियों के माध्यम से ईश्वर की महिमा और ज्ञान का रहस्य।
श्रीमद्भगवद्गीता का ग्यारहवाँ अध्याय – विश्वरूपदर्शनयोग
श्रीमद्भगवद्गीता का ग्यारहवाँ अध्याय ‘विश्वरूपदर्शनयोग’ भगवान श्रीकृष्ण के विराट रूप के अद्भुत दर्शन को प्रकट करता है। जानें इसका सार, श्लोकों का भावार्थ और आध्यात्मिक महत्व इस लेख में।
श्रीमद्भगवद्गीता का बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग
भक्तियोग आत्मा और परमात्मा के मिलन का सरल मार्ग है, जिसमें प्रेम, समर्पण और भक्ति के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति की जाती है। जानिए इसके महत्व, प्रकार और भगवद गीता में भक्तियोग की भूमिका।
श्रीमद्भगवद्गीता का तेरहवाँ अध्याय – क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग में आत्मा (क्षेत्रज्ञ) और शरीर (क्षेत्र) के अंतर को विस्तार से समझाया गया है। यह अध्याय ज्ञान, प्रकृति, पुरुष और परमात्मा के संबंध की गहराई से विवेचना करता है। आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिए यह अध्याय आत्मबोध और मोक्ष मार्ग का प्रकाशक है।
श्रीमद्भगवद्गीता का चौदहवाँ अध्याय – गुणत्रयविभागयोग
भगवद गीता का चौदहवाँ अध्याय “गुणत्रयविभागयोग” सत्त्व, रज और तम – इन तीन गुणों के प्रभाव, प्रकृति और आत्मा पर उनके प्रभाव को स्पष्ट करता है। इस अध्याय में आत्मा की मुक्ति का मार्ग और गुणातीत बनने की प्रक्रिया बताई गई है।
श्रीमद्भगवद्गीता का पंद्रहवां अध्याय – पुरुषोत्तमयोग
भगवद गीता के पंद्रहवें अध्याय ‘पुरुषोत्तम योग’ में भगवान श्रीकृष्ण आत्मा, शरीर और परमात्मा के रहस्यों को प्रकट करते हैं। इस अध्याय में परम पुरुष की महिमा का गूढ़ वर्णन है। जानें इसका सार, महत्व और आध्यात्मिक संदेश।
श्रीमद्भगवद्गीता का सोलहवाँ अध्याय – दैवासुरसम्पद्विभागयोग
दैवासुरसम्पद्विभागयोग में श्रीकृष्ण ने दिव्य (दैवी) और आसुरी स्वभावों का विस्तृत वर्णन किया है। जानिए किन गुणों से आत्मा मोक्ष की ओर अग्रसर होती है और कौन-से दोष बंधन का कारण बनते हैं। सम्पूर्ण विवरण व हिन्दी में व्याख्या पढ़ें।
श्रीमद्भगवद्गीता का सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धात्रयविभागयोग
जानिए श्रद्धा के तीन प्रकार: सात्त्विक, राजसिक और तामसिक श्रद्धा का गूढ़ रहस्य। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुसार होती है। पढ़ें सरल व्याख्या, श्लोक अर्थ व आध्यात्मिक ज्ञान।
श्रीमद्भगवद्गीता का अट्ठारहवाँ अध्याय – मोक्षसंन्यासयोग
मोक्षसंन्यासयोग भगवद गीता का अंतिम और 18वां अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण मोक्ष, संन्यास, कर्म योग और आत्मज्ञान के रहस्यों को विस्तार से समझाते हैं। यह अध्याय जीवन के अंतिम सत्य को समझने और आत्मा की मुक्ति का मार्ग दिखाने वाला है।
“जीवन का दृष्टिकोण ही बदल गया”
भगवद गीता के प्रेरणादायक उद्धरण
कर्मयोग
श्लोक:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ (अध्याय 2, श्लोक 47)
अनुवाद:
तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए कर्म का फल पाने की इच्छा मत करो और न ही अकर्म (कर्म न करने) में आसक्त हो।
आत्मज्ञान
श्लोक:
न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ (अध्याय 2, श्लोक 20)
अनुवाद:
आत्मा कभी जन्म नहीं लेती और न ही मरती है। वह नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती।
समभाव
श्लोक:
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ (अध्याय 2, श्लोक 38)
अनुवाद:
सुख-दुख, लाभ-हानि, और जय-पराजय को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ — इस प्रकार तुम पाप के भागी नहीं बनोगे।
मन और आत्मा
श्लोक:
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥ (अध्याय 15, श्लोक 17)
अनुवाद:
वह सर्वोच्च पुरुष (परमात्मा) है जो तीनों लोकों में व्याप्त होकर उनका पालन करता है और अविनाशी ईश्वर कहलाता है।
ज्ञान का महत्व
श्लोक:
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥ (अध्याय 4, श्लोक 38)
अनुवाद:
इस संसार में ज्ञान के समान कोई पवित्र वस्तु नहीं है। योग में पूर्ण सिद्ध हुआ पुरुष समय आने पर स्वयं इसे अपने भीतर अनुभव करता है।
शरणागति और प्रेम
श्लोक:
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ (अध्याय 18, श्लोक 66)
अनुवाद:
सब प्रकार के धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा — तू शोक मत कर।